विदेशों में धूम मचाती मुजफ्फरपुर की लीची
कुछ लोगों ने लीची का जन्मदाता भारत को ही माना है, तो अन्य विशेषज्ञ इस लुभावने फल की जन्मस्थली चीन को मानते हैं, कुछ विशेषज्ञों का अनुमान है कि किसी पर्यटक के माध्यम से लीची चीन से भारत में आयी। चीन के लूचू द्वीप में इसका अत्यधिक उत्पादन होता था। लगता है लूचू से ही इस फल का नाम लीची पड़ा।
लीची का फल अपरिपक्व अवस्था में हरा और परिपक्व अवस्था में लाल होता है, इसके पेड़ की ऊंचाई 3-4 मीटर से 10-12 मीटर तक होती है और पेड़ चारों तरफ फैला हुआ होता है, फरवरी में पेड़ चारों तरफ फैला हुआ होता है। फरवरी में पेड़ पर मंजरी निकल आती है और मार्च में फल दिखाई पड़ने लगते हैं। वैसे 15-20 मई तक फल परिपक्व होते हैं, तब पेड़ की खूबसूरती देखने लायक होती है।
लीची में प्रमुख पोषक तत्व चीनी(कार्बोहाइट्रेट) है, जिसकी मात्रा किस्म विशेष, मिट्टी तथा जलवायु पर निर्भर करती है। लीची के पके फल का विश्लेषण करने पर पाया गया है कि इसमें औसतन 15.3 प्रतिशत चीनी, 1.15 प्रतिशत प्रोटीन और 116 प्रतिशत अम्ल होता है। इसके अतिरिक्त यह फल फासफोरस, कैल्शियम, लोहा, खनिज-लवण और विटामिन 'सी' का अच्छा स्त्रोत है। लीची में जल की मात्रा अत्यधिक होती है। इसके एक फल में 77.30 प्रतिशत गूद्दा होता है और गूद्दे में 30.94 प्रतिशत जल। लीची की अनेक किस्मे हैं पूरे देश में कुछ दो दर्जन और प्रचलित एक दर्जन से अधिक किस्में नहीं हैं। वस्तुत: इसकी पांच-छह किस्में ही अधिक प्रचलित हैं, मुजफ्फरपुर की किस्मों में पूर्वी रोज सेंटेड, शाही, चाइना और बेदाना प्रमुख हैं। इन किस्मों में भी व्यापक विभिन्नता का अभाव है। इन सभी किस्मों में बेदाना लीची सर्वश्रेष्ठ मानी जाती है। इस किस्म की लीची की विशेषता यह है कि इसमें बीज बहुत छोटा और गूद्दे की मात्रा बहुत अधिक होती है।
जब लीची का बाग लगाया जाता है, तब पौधों की आयु बहुत ही कम होती है। उस समय मुख्य रूप से बाग की जुताई, सिंचाई, खाद-उर्वरक के संतुलित प्रयोग, कटाई-छंटाई और कीट तथा व्याधियों से बचाव पर अधिक ध्यान देना पड़ता है। नये पौधों का आकार ठीक हो, इसी उद्देश्य से पौधों की कुछ कटाई-छंटाई भी की जाती है।
व्यापारिक दृष्टि से लीची की बागवानी बहुत ही लाभप्रद है, इसकी बागवानी में यद्यपि प्रथम तीन-चार वर्षों में केवल व्यय करना पड़ता है। लेकिन इसके बाद लाभ बढ़ता जाता है और पौध बगीचे से बीस हजार रुपये प्रति हेक्टेयर से अधिक का शुद्ध लाभ किसानों को प्राप्त होता है, जबकि इस फल का प्रतिवर्ष नियमित फलन होता है और कीड़े तथा व्याधियों का प्रकोप और उनसे हानि बहुत ही कम होती है। लेकिन होता यह है कि बिचौलिये फल लगने से पहले ही बागवानी खरीद लेते हैं। ये बिचौलिये अक्सर किसानों को चकमा देकर स्वयं अधिक मुनाफा कर लेते है। कुछ किसान तो जल्दबाजी के कारण नुकसान उठाकर भी व्यापारियों को लीची थमा देते हैं। इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि लीची पकने के बाद अन्य फलों की तरह इसे अधिक दिनों तक नहीं रखा जा सकता। दूसरा कारण यह है कि यह फल धीरे-धीरे न पक्कर एक बार में ही पक जाता है। इस संबंध में ऐसे अनुसंधान की आवश्यकता है, जिससे फल तैयार होकर पकने पर तथा पके फल का ज्यादा दिनों तक सुरक्षित रखा जा सके।
विगत तीन दशक में लीची के उत्पादन में डेढ़ से दो गुणा वृद्धि अवश्य हुई है लेकिन यह विश्व बाजार की मांग, यहां तक कि अपने ही देश की मांग की तुलना में बहुत ही कम है। इसके कई कारण हैं – प्रथम उत्तर बिहार, जो लीची उत्पादन का मुख्य केंद्र है, यहां लीची पर आधारित कोई उद्योग नहीं है, जो इस मधुर फल से अन्य सामग्री (जो अधिक दिनों तक काम में लायी जा सके) तैयार कर सके।
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